जब ‘जय भीम’ सिर्फ़ नारा नहीं, इंकलाब बन गया

राघवेन्द्र मिश्रा
राघवेन्द्र मिश्रा

जब कोई कहता है “जय भीम”, तो वो सिर्फ़ एक अभिवादन नहीं करता — वो एक विचार, एक इतिहास और एक सामाजिक विद्रोह को सलाम करता है। इस दो शब्दों में छिपी है आज़ादी, समानता और न्याय की जंग

“जय भीम” का जन्म — सम्मान से उठी आवाज़

“जय भीम” नारे की शुरुआत 1940 के दशक में मानी जाती है। यह नारा डॉ. भीमराव अंबेडकर के अनुयायियों द्वारा उनके सम्मान में गढ़ा गया। शुरुआत में यह एक क्रांतिकारी अभिवादन था, जिसे दलित समाज के लोग आपसी मेलजोल और आत्मसम्मान के प्रतीक के रूप में बोलते थे।

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नारा बना आंदोलन की नींव

समय के साथ, “जय भीम” सिर्फ़ एक ग्रीटिंग नहीं रहा, बल्कि यह नारा दलित चेतना, बहुजन आंदोलन और संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष का प्रतीक बन गया।

यह नारा मंच से लेकर मुहर्रम के जुलूस, कॉलेज कैंपस से लेकर संविधान भवन तक शोषितों की आवाज़ बना।

राजनीति और सड़क पर गूंजता रहा ‘जय भीम’

“जय भीम” ने समाज में ऐसी गूंज पैदा की कि अब यह नारा संसद, सोशल मीडिया, गीतों, कविताओं और आंदोलनों में प्रेरणा का स्रोत है।
जय भीम अब एक वैचारिक आंदोलन है, जो सिर्फ़ डॉ. अंबेडकर को श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि उनके विचारों को ज़िंदा रखने की प्रतिज्ञा है।

आज का जय भीम – एकजुटता और विरोध का प्रतीक

आज जब कोई “जय भीम” कहता है, तो वह जातिवाद, भेदभाव और अन्याय के ख़िलाफ़ खड़ा होता है।
यह मानवाधिकार, शिक्षा, समानता, और संविधान में विश्वास की पुकार है।
“जय भीम” आज का ‘हम होंगे कामयाब’ है — लेकिन संविधान की किताब लिए हुए।

नारे से मिशन तक, जय भीम ज़िंदा है

“जय भीम” कोई फैशन ट्रेंड नहीं, यह एक विचारधारा का जीवंत उदाहरण है।
यह नारा उस भारत की उम्मीद है जहां हर किसी को समान अधिकार, सम्मान और न्याय मिल सके।

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